Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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जॉन सेवक-तुम्हारा यह कहना ठीक है, लेकिन यह समझ लो कि क्षमा बदले के भय से नहीं माँगी जाती। भय से आदमी छिप जाता है,दूसरों की मदद माँगने दौड़ता है, क्षमा नहीं माँगता। क्षमा आदमी उसी वक्त माँगता है, जब उसे अपने अन्याय और बुराई का विश्वास हो जाता है, और जब उसकी आत्मा उसे लज्जित करने लगती है। प्रभु सेवक से तुम माफी माँगने को कहो, तो कभी न राजी होगा। तुम उसकी गरदन पर तलवार चलाकर भी उसके मुँह से क्षमा-याचना का एक शब्द नहीं निकलवा सकते। अगर विश्वास न हो, तो इसकी परीक्षा कर लो, इसका कारण यही है कि वह समझता है, मैंने कोई ज्यादती नहीं की। वह कहता है, मुझे उन लोगों ने गालियाँ दीं। लेकिन मैं इसे किसी तरह नहीं मान सकता कि आपने उसे गालियाँ दी होंगी। शरीफ आदमी न गालियाँ देता है, न गालियाँ सुनता है। मैं जो क्षमा माँग रहा हूँ, वह इसलिए कि मुझे यहाँ सरासर उसकी ज्यादती मालूम होती है। मैं उसके दुर्वव्‍यवहार पर लज्जित हूँ, और मुझे इसका दु:ख है कि मैंने उसे यहाँ क्यों आने दिया। सच पूछिए, तो अब मुझे यही पछतावा हो रहा है कि मैंने इस जमीन को लेने की बात ही क्यों उठाई। आप लोगों ने मेरे गुमाश्ते को मारा, मैंने पुलिस में रपट तक न की। मैंने निश्चय कर लिया कि अब इस जमीन का नाम न लूँगा। मैं आप लोगों को कष्ट नहीं देना चाहता, आपको उजाड़कर अपना घर नहीं बनाना चाहता। अगर तुम लोग खुशी से दोगे तो लूँगा, नहीं तो छोड़ दूँगा। किसी का दिल दु:खाना सबसे बड़ा अधर्म कहा गया है। जब तक आप लोग मुझे क्षमा न करेंगे, मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।

उद्दंडता सरलता का केवल उग्र रूप है। साहब के मधुर वाक्यों ने नायकराम का क्रोध शांत कर दिया। कोई दूसरा आदमी इतनी ही आसानी से उसे साहब की गरदन पर तलवार चलाने के लिए उत्तोजित कर सकता था; सम्भव था, प्रभु सेवक को देखकर उसके सिर पर खून सवार हो जाता; पर इस समय साहब की बातों ने उसे मंत्रमुग्ध-सा कर दिया। बोला-कहो बजरंगी, क्या कहते हो?
बजरंगी-कहना क्या है, जो अपने सामने मस्तक नवाते, उसके सामने मस्तक नवाना ही पड़ता है। साहब यह भी तो कहते हैं कि अब इस जमीन से कोई सरोकार न रखेंगे, तो हमारे और इनके बीच में झगड़ा ही क्या रहा?
जगधर-हाँ, झगड़े का मिट जाना ही अच्छा है। बैर-विरोध से किसी का भला नहीं होता।
भैंरों के-छोटे साहब को चाहिए कि आकर पंडाजी से खता माफ करावें। अब वह कोई बालक नहीं हैं कि आप उनकी ओर से सिपारिस करें। बालक होते, तो दूसरी बात थी, तब हम लोग आप ही को उलाहना देते। वह पढ़े-लिखे आदमी हैं, मूँछ-दाढ़ी निकल आई है। उन्हें खुद आकर पंडाजी से कहना-सुनना चाहिए।
नायकराम-हाँ, यह बात पक्की है। जब तक वह थूककर न चाटेंगे, मेरे दिल से मलाल न निकलेगा।
जॉन सेवक-तो तुम समझते हो कि दाढ़ी-मूँछ आ जाने से बुध्दि आ जाती है? क्या ऐसे आदमी नहीं देखे हैं, जिनके बाल पक गए हैं, दाँत टूट गए हैं, और अभी तक अक्ल नहीं आई? प्रभु सेवक अगर बुध्दू न होता, तो इतने आदमियों के बीच में और पंडाजी-जैसे पहलवान पर हाथ न उठाता। उसे तुम कितना ही दबाओ, पर मुआफी न माँगेगा। रही जमीन की बात, अगर तुम लोगों की मरजी है कि मैं इस मुआमले को दबा रहने दूँ, तो यही सही। पर शायद अभी तक तुम लोगों ने इस समस्या पर विचार नहीं किया, नहीं तो कभी विरोध न करते। बतलाइए पंडाजी, आपको क्या शंका है?
नायकराम-भैंरों के, इसका जवाब दो। अब तो साहब ने तुमको कायल कर दिया!
भैरों-कायल क्या कर दिया, साहब यही कहते हैं न कि छोटे साहब को अक्कल नहीं है; तो वह कुएँ में क्यों नहीं कूद पड़ते, अपने दाँतों से अपना हाथ क्यों नहीं काट लेते? ऐसे आदमियों को कोई कैसे पागल समझ ले?
जॉन सेवक-जो आदमी न समझे कि किस मौके पर कौन काम करना चाहिए, किस मौके पर कौन बात करनी चाहिए, वह पागल नहीं तो और क्या है?
नायकराम-साहब, उन्हें मैं पागल तो किसी तरह न मानूँगा। हाँ आपका मुँह देखके उनसे बैर न बढ़ाऊँगा। आपकी नम्रता ने मेरा सिर झुका दिया है। सच कहता हूँ, आपकी भलमनसी और शराफत ने मेरा गुस्सा ठंडा कर दिया, नहीं तो मेरे दिल में न जाने कितना गुबार भरा हुआ था। अगर आप थोड़ी देर और न आते, तो आज शाम तक छोटे साहब अस्पताल में होते। आज तक कभी मेरी पीठ में धूल नहीं लगी। जिंदगी में पहली बार मेरा इतना अपमान हुआ और पहली बार मैंने क्षमा करना भी सीखा। यह आपकी बुध्दि की बरकत है। मैं आपकी खोपड़ी को मान गया। अब साहब की दूसरी बात का जवाब दो बजरंगी।
बजरंगी-उसमें अब काहे का सवाल-जवाब। साहब ने तो कह दिया कि मैं उसका नाम न लूँगा। बस, झगड़ा मिट गया।
जॉन सेवक-लेकिन अगर उस जमीन के मेरे हाथ में आने से तुम्हारा सोलहों आने फायदा हो, तो भी तुम हमें न लेने दोगे?
बजरंगी-हमारा फायदा क्या होगा, हम तो मिट्टी में मिल जाएँगे।
जॉन सेवक-मैं तो दिखा दूँगा कि यह तुम्हारा भ्रम है। बतलाओ, तुम्हें क्या एतराज है?
बजरंगी-पंडाजी के हजारों यात्री आते हैं, वे इसी मैदान में ठहरते हैं। दस-दस, बीस-बीस दिन पड़े रहते हैं, वहीं खाना बनाते हैं, वहीं सोते भी हैं। सहर के धरमसालों में देहात के लोगों को आराम कहाँ? यह जमीन न रहे, तो कोई यात्री यहाँ झाँकने भी न आए।
जॉन सेवक-यात्रीयों के लिए, सड़क के किनारे, खपरैल के मकान बनवा दिए जाएँ, तो कैसा?
बजरंगी-इतने मकान कौन बनवाएगा?
जॉन सेवक-इसका मेरा जिम्मा। मैं वचन देता हूँ कि यहाँ धर्मशाला बनवा दूँगा।
बजरंगी-मेरी और मुहल्ले के आदमियों की गायें-भैंसे कहाँ चरेंगी?
जॉन सेवक-अहाते में घास चराने का तुम्हें अख्तियार रहेगा। फिर, अभी तुम्हें अपना सारा दूध लेकर शहर जाना पड़ता है। हलवाई तुमसे दूध लेकर मलाई, मक्खन, दही बनाता है, और तुमसे कहीं ज्यादा सुखी है। यह नफा उसे तुम्हारे ही दूध से तो होता है! तुम अभी यहाँ मलाई-मक्खन बनाओ, तो लेगा कौन? जब यहाँ कारखाना खुल जाएगा, तो हजारों आदमियों की बस्ती हो जाएगी, तुम दूध की मलाई बेचोगे, दूध अलग बिकेगा। इस तरह तुम्हें दोहरा नफा होगा। तुम्हारे उपले घर बैठे बिक जाएँगे। तुम्हें तो कारखाना खुलने से सब नफा-ही-नफा है।
नायकराम-आता है समझ में न बजरंगी?
बजरंगी-समझ में क्यों नहीं आता, लेकिन एक मैं दूध की मलाई बना लूँगा, और लोग भी तो हैं, दूध खाने के लिए जानवर पाले हुए हैं। उन्हें तो मुसकिल पड़ेगी।
ठाकुरदीन-मेरी ही एक गाय है। चोरों का बस चलता, तो इसे भी ले गए होते। दिन-भर वह चरती है। साँझ सबेरे दूध दुहकर छोड़ देता हूँ। धोले का भी चारा नहीं लेना पड़ता। तब तो आठ आने रोज का भूसा भी पूरा न पड़ेगा।
जॉन सेवक-तुम्हारी पान की दूकान है न? अभी तुम दस-बारह आने पैसे कमाते होगे। तब तुम्हारी बिक्री चौगुनी हो जाएगी। इधर की कमी उधर पूरी हो जाएगी। मजदूरों को पैसे की पकड़ नहीं होती; काम से जरा फुरसत मिली कि कोई पान पर गिरा; कोई सिगरेट पर दौड़ा। खोंचेवाले की खासी बिक्री होगी, और शराब-ताड़ी का पूछना ही क्या, चाहो तो पानी को शराब बनाकर बेचो। गाड़ीवालों की मजदूरी बढ़ जाएगी। यही मोहल्ला चौक की भाँति गुलजार हो जाएगा। तुम्हारे लड़के अभी शहर पढ़ने जाते हैं, तब यहीं मदरसा खुल जाएगा।
जगधर-क्या यहाँ मदरसा भी खुलेगा?
जॉन सेवक-हाँ, कारखाने के आदमियों के लड़के आखिर पढ़ने कहाँ जाएँगे? अंगरेजी भी पढ़ाई जाएगी।
जगधर-फीस कुछ कम ली जाएगी?
जॉन सेवक-फीस बिलकुल ही न ली जाएगी, कम-ज्यादा कैसी!
जगधर-तब तो बड़ा आराम हो जाएगा।
नायकराम-जिसका माल है, उसे क्या मलेगा?
जॉन सेवक-जो तुम लोग तय कर दो। मैं तुम्हीं को पंच मानता हूँ। बस, उसे राजी करना तुम्हारा काम है।
नायकराम-वह राजी ही है। आपने बात-की-बात में सबको राजी कर लिया, नहीं तो यहाँ लोग मन में न जाने क्या-क्या समझे बैठे थे। सच है, विद्या बड़ी चीज है।
भैरों-वहाँ ताड़ी की दूकान के लिए कुछ देना तो न पड़ेगा?
नायकराम-कोई और खड़ा हो गया, तो चढ़ा-ऊपरी होगी ही।
जॉन सेवक-नहीं, तुम्हारा हक सबसे बढ़कर समझा जाएगा।
नायकराम-तो फिर तुम्हारी चाँदी है भैरों!
जॉन सेवक-तो अब मैं चलूँ पंडाजी, अब आपके दिल में मलाल तो नहीं है?
नायकराम-अब कुछ कहलाइए न, आपका-सा भलामानुस आदमी कम देखा।
जॉन सेवक चले गए तो बजरंगी ने कहा-कहीं सूरे राजी न हुए, तो?
नायकराम-हम तो राजी करेंगे! चार हजार रुपये दिलाने चाहिए। अब इसी समझौते में कुशल है। जमीन रह नहीं सकती। यह आदमी इतना चतुर है कि इससे हम लोग पेस नहीं पा सकते। यों निकल जाएगी तो हमारे साथ यह सलूक कौन करेगा? सेंत में जस मिलता हो, तो छोड़ना न चाहिए।
जॉन सेवक घर पहुँचे तो डिनर तैयार था। प्रभु सेवक ने पूछा-आप कहाँ गए थे? जॉन सेवक ने रूमाल से मुँह पोंछते हुए कहा-हरएक काम करने की तमीज चाहिए। कविता रच लेना दूसरी बात है, काम कर दिखाना दूसरी बात। तुम एक काम करने गए, मोहल्ले-भर से लड़ाई ठानकर चले आए। जिस समय मैं पहुँचा हूँ, सारे आदमी नायकराम के द्वार पर जमा थे। वह डोली में बैठकर शायद राजा महेंद्रसिंह के पास जाने को तैयार था। मुझे सबों ने यों देखा जैसे फाड़ जाएँगे। लेकिन मैंने कुछ इस तरह धैर्य और विनय से काम लिया, उन्हें दलीलों और चिकनी-चुपड़ी बातों में ऐसा ढर्रे पर लाया कि जब चला, तो सब मेरा गुणानुवाद कर रहे थे। जमीन का मुआमला भी तय हो गया। उसके मिलने में अब कोई बाधा नहीं है।
प्रभु सेवक-पहले तो सब उस जमीन के लिए मरने-मारने पर तैयार थे।
जॉन सेवक-और कुछ कसर थी, तो वह तुमने जाकर पूरी कर दी। लेकिन याद रखो, ऐसे विषयों में सदैव मार्मिक अवसर पर निगाह रखनी चाहिए। यही सफलता का मूल-मंत्र है। शिकारी जानता है, किस वक्त हिरन पर निशाना मारना चाहिए। वकील जानता है, अदालत पर कब उसकी युक्तियों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ सकता है। एक महीना नहीं, एक दिन पहले, मेरी बातों का इन आदमियों पर जरा भी असर न होता। कल तुम्हारी उद्दंडता ने वह अवसर प्रस्तुत कर दिया। मैं क्षमाप्रार्थी बनकर उनके सामने गया। मुझे दबकर, झुककर, दीनता से, नम्रता से अपनी समस्या को उनके सम्मुख उपस्थित करने का अवसर मिला। यदि उनकी ज्यादती होती, तो मेरी ओर से भी कड़ाई की जाती। उस दशा में दबना नीति और आचरण के विरुध्द होता। ज्यादती हमारी ओर से हुई, बस यही मेरी जीत थी।
ईश्वर सेवक बोले-ईश्वर, इस पापी को अपनी शरण में ले। बर्फ आजकल बहुत महँगी हो गई है, फिर समझ में नहीं आता, क्यों इतनी निर्दयता से खर्च की जाती है। सुराही का पानी काफी ठंडा होता है।
जॉन सेवक-पापा, क्षमा कीजिए, बिना बर्फ के प्यास ही नहीं बूझती।
ईश्वर सेवक-खुदा ने चाहा बेटा, तो उस जमीन का मुआमला तय हो जाएगा। आज तुमने बड़ी चतुरता से काम किया।
मिसेज़ सेवक-मुझे इन हिंदुस्तानियों पर विश्वास नहीं आता। दगाबाजी कोई इनसे सीख ले। अभी सब-के-सब हाँ-हाँ कह रहे हैं, मौका पड़ने पर सब निकल जाएँगे। महेंद्रसिंह ने नहीं धोखा दिया? यह जाति ही हमारी दुश्मन है। इनका वश चले, तो एक ईसाई भी मुल्क में न रहने पाए।
प्रभु सेवक-मामा, यह आपका अन्याय है? पहले हिंदुस्तानियों की ईसाइयों से कितना ही द्वेष रहा हो, किंतु अब हालत बदल गई है। हम खुद अंगरेजों की नकल करके उन्हें चिढ़ाते हैं। प्रत्येक अवसर पर अंगरेजों की सहायता से उन्हें दबाने की चेष्टा करते हैं। किंतु यह हमारी राजनीतिक भ्रांति है। हमारा उध्दार देशवासियों से भ्रातृभाव रखने में है, उन पर रोब जमाने में नहीं। आखिर हम भी तो इसी जननी की संतान हैं। यह असम्भव है कि गोरी जातियाँ केवल धर्म के नाते हमारे साथ भाईचारे का व्यवहार करें। अमेरिका के हबशी ईसाई हैं, लेकिन अमेरिका के गोरे उनके साथ कितना पाशविक और अत्याचारपूर्ण बर्ताव करते हैं! हमारी मुक्ति भारतवासियों के साथ है।
मिसेज़ सेवक-खुदा वह दिन न लाए कि हम इन विधर्मियों की दोस्ती को अपने उध्दार का साधन बनाएँ। हम शासनाधिकारियों के सहधर्मी हैं। हमारा धर्म, हमारी रीति-नीति, हमारा आहार-व्यवहार अंगरेजों के अनुकूल है। हम और वे एक कलिसिया में, एक परमात्मा के सामने, सिर झुकाते हैं। हम इस देश में शासक बनकर रहना चाहते हैं, शासित बनकर नहीं। तुम्हें शायद कुँवर भरतसिंह ने यह उपदेश दिया है। कुछ दिन और उनकी सोहबत रही, तो शायद तुम भी ईसू से विमुख हो जाओ।
प्रभु सेवक-मुझे तो ईसाइयों में जागृति के विशेष लक्षण नहीं दिखाई देते।
जॉन सेवक-प्रभु सेवक, तुमने बड़ा गहन विषय छेड़ दिया। मेरे विचार में हमारा कल्याण अंगरेजों के साथ मेल-जोल करने में है। अंगरेज इस समय भारतवासियों की संयुक्त शक्ति से चिंतित हो रहे हैं। हम अंगरेजों से मैत्री करके उन पर अपनी राजभक्ति का सिक्का जमा सकते हैं,और मनमाने स्वत्व प्राप्त कर सकते हैं। खेद यही है कि हमारी जाति ने अभी तक राजनीतिक क्षेत्र में पग ही नहीं रखा। यद्यपि देश में हम अन्य जातियों से शिक्षा में कहीं आगे बढ़े हुए हैं; पर अब तक राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है। हिंदुस्तानियों में मिलकर हम गुम हो जाएँगे, खो जाएँगे। उनसे पृथक् रहकर विशेष अधिकार और विशेष सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।
ये ही बातें हो रही थीं कि एक चपरासी ने आकर एक खत दिया। यह जिलाधीश मिस्टर क्लार्क का खत था। उनके यहाँ विलायत से कई मेहमान आए हुए थे। क्लार्क ने उनके सम्मान में एक डिनर दिया था, और मिसेज़ सेवक तथा मिस सोफ़िया सेवक को उसमें सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया था। साथ ही मिसेज़ सेवक से विशेष अनुरोध भी किया था कि सोफ़िया को एक सप्ताह के लिए अवश्य बुला लीजिए।

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